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“दायित्व”
“नैन लड़ जहिएं तो मनवा मा कसक होइबे करि ”
फ़िल्मी गीत की स्वर लहरी ने तीस बरस पीछे धकेल उस वक्त लिए निर्णय की शाश्वतता सिद्ध कर दी ,जब ” माधुरी ” और मेरे , झंकृत होते ह्रदय के तारों ने , नयनो की लुका छिपी को विराम देते हुए इस गीत के मुखड़े की साक्षी में जीवन भर साथ निभाने का निर्णय ले लिया।
माधुरी ,बुद्धि में उगते सूर्य सी ओजस्विनी, स्वभाव में पूनम की चंद्र किरणों सी ,व्यवहार में गुलाब के फूलों सी महकती ,सुंदर मनमोहिनी।
राज यानी मै ,हट्टा – कट्टा सजीला , रौबीला नौजवान ,तर्की भी और कुतर्की भी, परीक्षाओं में अव्वल तो खेल – कूद में भी पीछे नहीं , दोस्तों से घिरा और
” मैं ही मैं ” मे डूबा , न जाने कब धीरे धीरे माधुरी से अभीभूत हो गया ,पता ही नहीं चला। इंजिनीरिंग के अंतिम वर्ष तक आते आते दोस्ती की यह धारा प्रेम कि नदिया में परिवर्तित हो ,विवाह के सागर की गहराइयों में समाने को तत्पर हो उठी।
शास्त्र सम्मत , धर्म , अर्थ, काम, मोक्ष, पुरुषार्थों को पूरा करने के लिए , ब्रह्मचर्य अवस्था से निकल गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का समय आ चुका था।
माधुरी शर्मा अपने चिकित्सक माता – पिता की इकलौती संतान थी। सरल सादगी से भरपूर किन्तु पारखी एवं खुले विचारों के होने के कारण डॉ शर्मा से भी मेरे बहुत आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे ,श्रीमती शर्मा को भी कभी मुझ में ऐब या खटकने वाली बात दिखाई नहीं दी। माधुरी के परिवार में मैं विवाह हेतु स्वीकारय था।
मेरे पिता का दवाइओं का कारोबार था। पिता के साथ तीन भाई सहयोग करते थे। एक भाई बैंक में और एक डॉक्टर हो गए थे। सबसे छोटा होने के कारण माता – पिता का लाड़ला और थोड़ा मुँहफट भी था पर अपनी मर्यादाओं के बीच ही। माता -पिता के, संघर्ष संस्कार कठोर अनुशासन के फल स्वरुप परिवार के किसी भी सदस्य में कोई विशेष बुराई या कमज़ोरी तो नही थी अपितु शिष्टाचार व सदाशयता अवश्य दिखती थी।
सच्चाई यह भी है कि जहाँ चार बर्तन होते हैं खटकते भी हैं ,हमारा संयुक्त परिवार भी इसका अपवाद नहीं था। माताजी व् भाभियों में कभी – कभी चलता रहता था। भाई लोग कभी मुँह नहीं खोलते किन्तु भाभियों ने समय के साथ चुप रहना छोड़ दिया। ऐसा भी नहीं कि भाभियाँ हर समय गलत होती थीं और माता जी हमेशा ही सही। अक्सर वाक् युद्ध सा चलता रहता हर कोई चीज़ों को अपने अपने नज़रिये से देखता हुआ तर्क – कुतर्क करता रहता। कभी कोई भाभी कुंठा ग्रस्त नज़र आती , कोई अपमान का घूँट गटकती सी लगती , कभी कोई अश्रुबिंदु को पलकों की ओट में ही समेट लेती या फिर माताजी आहत आत्मसम्मान को समेटने की विवशता में बुढ़ापे की दयनीयता ओढ़ लेतीं। दोनों ही परिस्थितियाँ मेरा मन व्यथित कर देती थीं।
नौकरी के बाद मुझे माधुरी के बारे में परिवार को बताना था और अपने निर्णय में शामिल करना था। इसलिए मैंने डॉक्टर भैया से सलाह ली उन्होंने ने सुझाया कि हम माधुरी के परिवार को अपने यहाँ आमंत्रित करते हैं। योजना अनुसार वे हमारे घर पधारे। डॉक्टर भैया ने अपने सीनियर प्रोफेशनल्स का अभिवादन किया और माँ ने उदारमना बन कर “बेटे की सहेली ” और उसके परिवार का हार्दिक सत्कार किया। इस पारिवारिक मुलाकात के बाद , उत्सुक नज़रों के बीच ढेरों मान – मुन्नवलों व् मनुहार के बाद पिता संग माँ ने अपने लाडले की पसंद पर अपनी “अनमोल स्वीकृति” दी।
खूबसूरत मधुर कल्पनाओं एनम वैवाहिक दायित्वों के बीच कशमकश की रफ़्तार , वर – वधु की भोर – सांझ सी पारिवारिक भिन्नताओं के कारण , बढ़ने लगी। कॉलेज की लोकप्रिय माधुरी, स्थानीय सामाजिक स्तर पर अंतरजातीय मुँहफट आधुनिका की संज्ञा में , व पारिवारिक परिवेश में, परिवार की अन्य बहुओं की भांति , आम सास बहु की तरह शुरू में शिष्टाचार के नाते ह्रदय में कुंठा और पलकों पर अश्रु छिपाए चुप चाप सही गलत सहती या फिर समय के साथ तेज तररार बन माँ को पीड़ा पहुंचाती नज़र आती।
राजनेतिक, सामाजिक व्यवस्थाओं को बदलने का दंभ भरता ” पुरुषार्थ ” क्या पारिवारिक स्तर पर , स्त्री शक्ति के दो मान दंडों , ” माँ और पत्नी” के सम्मान को परम्परा के नाम पर उदासीनता का आवरण ओढ़ कर ठेस ही पहुंचता रहेगा या लीक से हट कर परिवार में भी खुद सक्रिए हो कर नई परंपरा कि शुरूआत करेगा। इस तथ्य से इंकार कर पाना मुश्किल ही है कि माँ को बेटे के मुँह से निकला बोल कभी दुखी नहीं कर पता जब कि बहु के सही शब्द भी बहुत बार ह्रदय बेध डालते हैं, इसी प्रकार पत्नी मन न होने पर भी, पति का काम तो ख़ुशी ख़ुशी कर देती है पर उसी स्थिति में सास के काम में उलहना देने में नहीं चूक करती।
नेपथ्य से प्रतिध्वनित “नैन लड़ जहिएं तो मनवा मा कसक होइबे करि ” की गूँज में मेरे मन को “दायित्व बोध ” हुआ और मेरा मन एक कठिन निर्णय कर आश्वस्त होता है कि वह कोई भी अप्रिये या अरुचिकर स्तिथि आने से पहले ही बोधिक चातुर्य के साथ, संवाद सेतु के माध्यम से ,पारिवारिक कार्यकलापों में सक्रियता के द्वारा परिवार के दोनों ही स्तम्भों में मधुरिम विश्वसनीयता बनाए रखने में सफल होगा क्योंकि माँ” लाडले ” का ध्यान रखती है और पत्नी “पति” का मान रखती है।
अपने विवाह कि गहमा – गहमी के ख़तम होने के साथ ही मैंने “दायित्व श्रंखला ” शुरू कर दी। सुबह छ बजे ही मैं और माधुरी, चाय बना सबके कमरों में पहुंचा देते। भाई कि तिरछी नज़रें और भाभियों कि छेड़ का सबसे शरारत पूर्ण जवाब यही होता था कि “चाय बना तो बहाना है ” और माँ के लिए उत्तर यह था तोर तरीके सिखाने में मुझे मज़ा आता है। इसके साथ ही हम दोनों आठ बजे तक नाश्ता तैयार कर के रख देता और अपने अपने काम पर निकल जाते। शाम को माधुरी सब के साथ मिलजुल कर सीखती और हाथ बटाती। कई बार माँ कि भाव भंगिमाओं को देख कर में ही बात सम्भाल लेता और माँ को बोलने कि ज़रुरत भी न पड़ती। जब शांत प्रकृति माधुरी को कोई बात अखरती तो कभी उसके पक्ष में व्यवस्था बनाता , कभी संयुक्त परिवार का हवाला देता हुआ एकात्म हो असीम प्यार सागर की गहराइयों में समेट लेता और माधुरी को भी पलट कर बोलने की ज़रुरत नहीं पड़ी।
जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों के साथ समय पंख लगा कर केसे निकल गया पता ही नहीं चला।
“नैन लड़ जहिएं तो मनवा मा कसक होइबे करि
प्रेम का फुटीए पटाखा तो धमक होइबे करि”
आज हमारे पुत्र के विवाह उपरान्त पुत्र वधु के स्वागत समारोह में समस्त नाते रिश्तेदारों के समक्ष पूरी धमक के साथ ह्रदय से आशीषों की बरसती झड़ी के बीच अपनी अनुभवी आँखों में निश्छल प्रेम व् विश्वास भर माताजी मुझे और माधुरी को निहारते हुए अपने नव विवाहित पौत्र को सीख दे डालती हैं कि वह भी अपने पिता द्वारा शुरू की गई “दायित्व” परंपरा को आगे बढ़ाता चले ………। क्योंकि जीवन में प्यार व सम्मान से बढ़कर कुछ भी नहीं है।
– विधु गर्ग
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